September 02, 2009
ऐसे शिष्टाचार का मुझसे उम्मीद न रक्खे तो बेहतर
बहुत दिन हो गए ब्लॉग नहीं लिखा| समय नहीं मिलता ... मिलता ही नहीं! क्या करें ... (खैर) तो सुनिए —
इंसान जैसा होता है, वैसा दीखता नहीं| इसमें उस बेचारे की कोई गलती नहीं ... दुनिया अगर वैसी होती जैसा बापू चाहते थे (वे बहुत कुछ चाहते थे ...) तो शायद वह सोचता भी| जीने के नए ढंग ने बहुत कुछ बदल दिया ... जैसे शिष्टाचार| आज से शायद तीन दशक पहले इसके माने कुछ और ही होगा पर अब — शिष्टाचार — जैसे एक कृत्रिम बौद्धिकता: जिसने विभिन्न प्रकार के प्रलोभन को अपने में समायोजित किया हुआ है| (बाहर से नहीं मालुम पड़ता|) ऐसे शिष्टाचारी लोग लगभग हर जगह मिल जाते है| शायद देखा होगा (और समझा भी ...) जब बड़े-बड़े लोग जाम की सोहबत में संस्कारिक प्रत्यार्पण की बातें कुछ ऐसे करते हैं: जो उन्हें शोभा नहीं देती और, न ही उन पर जचती है|
ऐसे शिष्टाचार का मुझसे उम्मीद न रक्खे तो बेहतर ... क्योंकि मुझसे न होगा ये सब!
प्रश्न — क्या शिष्टाचार की वास्तव में आवश्यकता है? क्या दो निरे गंवार जो आपस में जो हसीं-मजाक अल्ललढ़ करते है वह शिष्टाचार की श्रेणी मैं आता है? क्या आपको अपने इष्ट से भी शिष्टाचार करना अनिवार्य है ... क्या वो ऐसा चाहते हैं?
— जरा सोचिये?
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